श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Tuesday, August 31, 2010

श्रीयोगवशिष्ठ महारामायण

राजा बोले: हे भगवान्! रामचन्द्रजी कौन थे कैसे थे और कैसे होकर बिचरे सो कृपा करके कहो?

वाल्मीकिजी बोले, हे राजन्! शाप के वश से सच्चिदानन्द विष्णुजी ने जो अद्वैत ज्ञान से सम्पन्न हैं, अज्ञान को अंगीकार करके मनुष्य का शरीर धारण किया । इतना सुन राजा ने पूछा, हे भगवान्! चिदानन्द हरि को शाप किस कारण हुआ और किसने दिया सो कहो?

वाल्मीकिजी बोले, हे राजन्! एक काल में सनत्कुमार, जो निष्काम हैं, ब्रह्मपुरी में बैठे थे और त्रिलोक के पति विष्णु भगवान् भी वैकुण्ठ से उतरकर ब्रह्मपुरी में आये । तब ब्रह्मा सहित सर्वसभा उठकर खड़ी हुई और श्रीभगवान् का पूजन किया, पर सनत्कुमार ने पूजन नहीं किया । इस बात को देखकर विष्णु भगवान् बोले कि हे सनत्कुमार! तुमको निष्कामता का अभिमान है इससे तुम काम से आतुर होगे और स्वामि-कार्त्तिक तुम्हारा नाम होगा । सनत्कुमार बोले, हे विष्णो! सर्वज्ञता का अभिमान तुमको भी है, इसलिये कुछ काल के लिए तुम्हारी सर्वज्ञता निवृत्त होकर अज्ञानता प्राप्त होगी । हे राजन्! एक तो यह शाप हुआ, दूसरा एक और भी शाप है, सुनो । एक काल में भृगु की स्त्री जाती रही थी । उसके वियोग से वह ऋषि क्रोधित हुआ था उसको देखकर विष्णुजी हँसे तब भृगु ब्राह्मण ने शाप दिया कि हे विष्णो!मेरी तुमने हँसी की है सो मेरी नाई तुम भी स्त्री के वियोग से आतुर होगे । और एक दिवस देवशर्मा ब्राह्मण ने नरसिंह भगवान् को शाप दिया था सो भी सुनिये । एक दिन नरसिंह भगवान् गंगा के तीर पर गये और वहाँ देवशर्मा ब्राह्मण की स्त्री को देखकर नरसिंहजी भयानक रूप दिखाकर हँसे । निदान उनको देखकर ऋषि की स्त्री ने भय पाय प्राण छोड़ दिया । तब देवशर्मा ने शाप दिया कि तुमने मेरी स्त्री का वियोग किया, इससे तुम भी स्त्री का वियोग पावोगे । हे राजन् सनतकुमार भृगु और देवशर्मा के शाप से विष्णु भगवान् ने मनुष्य का शरीर धारण किया और राजा दशरथ के घर में प्रकटे । हे राजन्! वह जो शरीर धारण किया और आगे जो वृत्तान्त हुआ सो सावधान होकर सुनो । अनुभवात्मक मेरा आत्मा जो त्रिलोकी अर्थात् स्वर्ग, मृत्यु, और पाताल का प्रकाशकर्त्ता और भीतर बाहर आत्मतत्त्व से पूर्ण है उस सर्वात्मा को नमस्कार है । हे राजन! यह शास्त्र जो आरम्भ किया है इसका विषय, प्रयोजन और सम्बन्ध क्या है और अधिकारी कौन है सो सुनो ।

यह शास्त्र सत्-चित्त आनन्दरूप अचिन्त्यचिन्मात्र आत्मा को जताता है यह तो विषय है, परमानन्द आत्मा की प्राप्ति और अनात्म अभिमान दुःख की निवृत्ति प्रयोजन है और ब्रह्मविद्या और मोक्ष उपाय से आत्मपद प्रतिपादन सम्बन्ध है जिसको यह निश्चय है कि मैं अद्वैत-ब्रह्म अनात्मदेह से बाँधा हुआ हूँ सो किसी प्रकार छूटूँ वह न अति ज्ञानवान् है, न मूर्ख है, ऐसा विकृति आत्मा यहाँ अधिकारी है । यह शास्त्र मोक्ष (परमानन्द की प्राप्ति) करनेवाला है । जो पुरुष इसको विचारेगा वह ज्ञानवान् होकर फिर जन्ममृत्युरूप संसार में न आवेगा । हे राजन! यह महारामायण पावन है । श्रवण मात्र से ही सब पाप का नाशकर्त्ता है जिसमें रामकथा है । यह मैंने प्रथम अपने शिष्य भारद्वाज को सुनाई थी ।

एक समय भारद्वाज चित्त को एकाग्र करके मेरे पास आये और मैंने उसको उपदेश किया था । वह उसको सुनकर वचनरूपी समुद्र से साररूपी रत्न निकाल और हृदयमें धरकर एक समय सुमेरु पर्वत पर गया । वहाँ ब्रह्माजी बैठे थे, उसने उनको प्रणाम किया और उनके पास बैठकर यह कथा सुनाई । तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा, हे पुत्र! कुछ वर माँग; मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हूँ । भारद्वाज ने, जिसका उदार आशय था, उनसे कहा, हे भूत-भविष्य के ईश्वर! जो तुम प्रसन्न हुए हो, तो यह वर दो कि सम्पूर्ण जीव संसार-सुख से मुक्त हों और परमपद पावें और उसी का उपाय भी कहो । ब्रह्माजी ने कहा, हे पुत्र! तुम अपने गुरु वाल्मीकिजी के पास जाओ । उसने आत्मबोध महारामायण शास्त्र का जो परमपावन संसार समुद्र के तरने का पुल है, आरम्भ किया है । उसको सुनकर जीव महामोहजनक संसार समुद्र से तरेंगे । निदान परमेष्ठी ब्रह्मा जिनकी सर्वभूतों के हित में प्रीति है आप ही, भारद्वाज को साथ लेकर मेरे आश्रम में आये और मैंने भले प्रकार से उनका पूजन किया । उन्होंने मुझसे कहा, हे मुनियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकि! यह जो तुमने रामके स्वभाव के कथन का आरम्भ किया है इस उद्यम का त्याग न करना; इसकी आदि से अन्त पर्यन्त समाप्ति करना; क्योंकि यह मोक्ष उपाय संसार रूपी समुद्र के पार करने का जहाज और इससे सब जीव कृतार्थ होंगे ।

इतना कहकर ब्रह्माजी, जैसे समुद्र से चक्र एक मुहूर्त पर्यन्त उठके फिर लीन हो जावे वैसे ही अन्तर्द्धान हो गये । तब मैंने भारद्वाज से कहा, हे पुत्र! ब्रह्माजी ने क्या कहा? भारद्वाज बोले हे भगवान्! ब्रह्माजी ने तुमसे यह कहा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ! यह जो तुमने राम के स्वभावके कथन का उद्यम किया है उसका त्याग न करना; इसे अन्तपर्यन्त समाप्तिकरना क्योंकि; संसारसमुद्र के पार करने को यह कथा जहाज है और इससे अनेक जीव कृतार्थ होकर संसार संकट से मुक्त होंगे । इतना कह कर फिर वाल्मीकिजी बोले हे राजन! जब इस प्रकार ब्रह्माजीने मुझसे कहा तब उनकी आज्ञानुसार मैंने ग्रन्थ बनाकर भारद्वाज को सुनाया । हे पुत्र! वशिष्ठजी के उपदेश को पाकर जिस प्रकार रामजी निश्शंक हो बिचरे हैं वैसे ही तुम भी बिचरो । तब उसने प्रश्न किया कि हे भगवान्! जिस प्रकार रामचन्द्रजी जीवन्मुक्त होकर बिचरे वह आदि से क्रम करके मुझसे कहिये? वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता,कौशल्या, सुमित्रा और दशरथ ये आठ तो जीवन्मुक्त हुए हैं और आठ मन्त्री अष्टगण वशिष्ठ और वामदेव से आदि अष्टाविंशति जीवन्मुक्त हो बिचरे हैं उनके नाम सुनो । रामजी से लेकर दशरथपर्यन्त आठ तो ये कृतार्थ होकर परम बोधवान् हुए हैं और १ कुन्तभासी, २ शतवर्धन, ३ सुखधाम, ४ विभीषण, ५ इन्द्रजीत्, ६ हनुमान ७ वशिष्ठ और ८ वामदेव ये अष्टमन्त्री निश्शंक हो चेष्टा करते भये और सदा अद्वैत-निष्ठ हुए हैं । इनको कदाचित् स्वरूप से द्वैतभाव नहीं फुरा है । ये अनामय पद की स्थिति में तृप्त रहकर केवल चिन्मात्र शुद्धपर परमपावनता को प्राप्त हुए हैं ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेकथारम्भवर्णनो नाम प्रथमस्सर्गः ॥१॥

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