श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Tuesday, December 20, 2011

अखण्ड आत्मदेव की उपासना



भगवान शंकर श्री वशिष्ठ मुनि से कहते हैं-
"हे ब्राह्मण ! जो उत्तम देवार्चन हैं और जिसके किये से जीव संसारसागर से तर जाता है, सो सुनो। हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ! पुण्डरीकाक्ष विष्णु देव नहीं और त्रिलोचन शिव भी देव नहीं। कमल से उपजे ब्रह्मा भी देव नहीं और सहस्रनेत्रइन्द्र भी देव नहीं। न देव पवन है, न सूर्य है न अग्नि, न चन्द्रमा है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न तुम हो, न मैं हूँ। अकृत्रिम, अनादि, अनन्त और संवितरूप ही देव कहाता है। आकारादिक परिच्छिन्नरूप हैं। वे वास्तव में कुछ नहीं। एक अकृत्रिम, अनादि चैतन्यस्वरूप देव है। वही 'देव' शब्द का वाचक है और उसी का पूजन वास्तव में पूजन है। जिससे यह सब हुआ है और सत्ता शांत, आत्मरूप है, उस देव को सर्वत्र व्याप्त देखना ही उसका पूजन है। जो उस संविततत्त्व को नहीं जानते, उनके लिए साकार की अर्चना का विधान है। जैसे, जो पुरुष योजनपर्यन्त नहीं चल सकता, उसको एक कोस-दो कोस चलना भी भला है। जो परिच्छिन्न (खण्डित) की उपासना करता है, उसको फल भी परिच्छिन्न (खण्डित) प्राप्त होता है और जो अकृत्रिम आनन्दस्वरूप अनन्त देव की उपासना करता है, उसको वही परमात्मारूपी फल प्राप्त होता है। हे साधो ! अकृत्रिम फल त्यागकर जो कृत्रिम को चाहते हैं वे ऐसे हैं जैसे कोई मन्दार वृक्ष के वन को त्यागकर कंटक के वन को प्राप्त हो।
वह देव कैसा है, उसकी पूजा क्या है और कैसे होती है, सुनो।
बोध, साम्य और शम ये तीन फूल हैं। 'बोध' सम्यक ज्ञान का नाम है, अर्थात् आत्मतत्त्व को ज्यों-का-त्यों जानना। 'साम्य' सबमें पूर्ण देखने को कहते हैं और शम का अर्थ है चित्त को निवृत्त करना और आत्मतत्त्व से भिन्न कुछ न देखना। इन्हीं तीनों फूलों से चिन्मात्र शुद्ध देव शिव की पूजा होती है, आकार की अर्चना से अर्चना नहीं होती।
चिन्मात्र आत्मसंवित् का त्याग कर अन्य जड़ की जो अर्चना करते हैं, वे चिरकाल पर्यन्त क्लेश के भागी होते हैं। हे मुनि ! जो ज्ञातेज्ञेय पुरुष हैं वे आत्मा भगवान एक देव है। वही शिव और परम कल्याणरूप है। सर्वदा ज्ञान-अर्चना से उसकी पूजा करो, और कोई पूजा नहीं है। पूज्य, पूजक और पूजा इस त्रिपुटी से आत्मदेव की पूजा नहीं होती।
यह सब विश्व केवल परमात्मरूप है। परमात्माकाश ब्रह्म ही एक देव कहाता है। उसी का पूजन सार है और उसी से सब फल प्राप्त होते हैं। वह देव सर्वज्ञ हैं और सब उसमें स्थित हैं। वह अकृत्रिम देव अज, परमानन्द और अखन्डरूप है। उसको अवश्य पाना चाहिए जिससे परम सुख प्राप्त होता है।
हे मुनीश्वर ! तुम जागे हुए हो, इस कारण मैंने तुमसे इस प्रकार की  देव-अर्चना कही है। पर जो असम्यकदर्शी बालक हैं, जिनको निश्चयात्मक बुद्धि नहीं प्राप्त हुई है उनके लिए धूप, दीप, पुष्प, चंदन आदि से अर्चना कही है और आकार कल्पित करके देव की मिथ्या कल्पना की है। अपने संकल्प से जो देव बनाते हैं और उसको पुष्प, धूप, दीपादिक से पूजते हैं सो भावनामात्र है। उससे उनको संकल्परचित फल की प्राप्ति होती है। यह बालक बुद्धि की अर्चना है।
हे मुनीश्वर ! हमारे मत में तो देव और कोई नहीं। एक परमात्मा देव ही तीनों भुवनों में है। वही देव शिव और सर्वपद से अतीत है। वह सब संकल्पों से अतीत है।
जो चैतन्यतत्त्व अरुन्धती का है और जो चैतन्यतत्त्व तुम निष्पाप मुनि का और पार्वती का है, वही चैतन्य तत्त्व मेरा है। वही चैतन्यतत्त्व त्रिलोकी मात्र का है। वही देव है, और कोई देव नहीं। हाथ-पाँव से युक्त जिस देव की कल्पना करते हैं वह चिन्मात्र सार नहीं है। चिन्मात्र ही सब जगत का सारभूत है और वही अर्चना करने योग्य है। यह देव कहीं दूर नहीं और किसी प्रकार किसी को प्राप्त होना भी कठिन नहीं। जो सबकी देह में स्थित और सबका आत्मा है वह दूर कैसे हो और कठिनता से कैसे प्राप्त हो ? सब क्रिया वही करता है। भोजन, भरण और पोषण वही करता है। वही श्वास लेता है। सबका ज्ञाता भी वही है। मनसहित षट्इन्द्रियों की चेष्टा निमित्त तत्त्ववेत्ताओं ने 'देव' कल्पित की है। एकदेव, चिन्मात्र, सूक्ष्म, सर्वव्यापी, निरंजन, आत्मा, ब्रह्म इत्यादि नाम ज्ञानवानों ने उपदेशरूप व्यवहार के निमित्त रखे हैं। वह आत्मदेव नित्य, शुद्ध और अद्वैतरूप है और सब जगत में अनुस्यूत है। वही चैतन्य तत्त्व चतुर्भुज होकर दैत्यों का नाश करता है, वही चैतन्य तत्त्व त्रिनेत्र, मस्तक पर चन्द्र धारण किये, वृषभ पर आरूढ़, पार्वतीरूप कमलिनी के मुख का भँवरा बनकर रूद्र होकर स्थित होता है। वही चेतना विष्णुरूप सत्ता है, जिसके नाभिकमल से ब्रह्म उपजे हैं। वह चैतन्य मस्तक पर चूड़ामणि धारनेवाला त्रिलोकपति रूद्र है। देवता रूप होकर वही स्थित हुआ है और दैत्यरूप होकर भी वही स्थित है।
हे मुनीश्वर ! वही चेतन शिवरूप होकर उपदेश दे रहा है और वही चेतन वशिष्ठ होकर सुन रहा है। उस परम चैतन्यदेव को जानना ही सच्ची अर्चना है।"

Saturday, March 5, 2011

मन को मारने का मंत्र

हे रामजी! यह चित्तरूपी महाव्याधि है, उसकी निवृत्ति के अर्थ मैं तुमको एक श्रेष्ठ औषध कहता हूँ वह तुम सुनो कि जिसमें यत्न भी अपना हो, साध्य भी आप ही हो और औषध भी आप हो और सब पुरुषार्थ आप ही से सिद्ध होता है । इस यत्न से चित्तरूपी वैताल को नष्ट करो । हे रामजी! जो कुछ पदार्थ तुमको रस संयुक्त दृष्टि आवें उनको त्याग करो । जब वाञ्छित पदार्थों का त्याग करोगे तब मन को जीत लोगे और अचलपद को प्राप्त होगे । जैसे लोहे से लोहा कटता है तैसे ही मन से मन को काटो और यत्न करके शुभगुणों से चित्तरूपी वेताल को दूर करो । देहादिक अवस्तु में जो बस्तु की भावना है और वस्तु आत्मतत्त्व में जो देहादिक की भावना है उनको त्यागकर आत्म तत्त्व में भावना लगाओ । हे रामजी! जैसे चित्त में पदार्थों की चिन्तना होती है तैसे ही आत्मपद पाने की चिन्तना से सत्यकर्म की शुद्धता लेकर चित्त को यत्न करके चैतन्य संवित् की ओर लगाओ और सब वासना को त्याग के एकाग्रता करो तब परमपद की प्राप्ति होगी । हे रामजी! जिन पुरुषों को अपनी इच्छा त्यागनी कठिन है वे विषयों के कीट हैं, क्योंकि अशुभ पदार्थ मूढ़ता से रमणीय भासते हैं उस अशुभ को अशुभ और शुभ को शुभ जानना यही पुरुषार्थ है । हे रामजी! शुभ अशुभ दोनों पहलवान हैं, उन दोनों में जो बली होता है उसकी जय होती है । इससे शीघ्र ही पुरुष प्रयत्न करके अपने चित्त को जीतो । जब तुम अचित्तहोगे तब यत्न बिना आत्मपद को प्राप्त होगे । जैसे बादलों के अभाव हुए यत्न बिना सूर्य भासता है तैसे ही आत्मपद के आगे चित्त का फुरना जो बादल वत् आवरण है उसका जब अभाव होगा तब अयत्नसिद्ध आत्मपद भासेगा सो चित्त के स्थित करने का मन्त्र भी आप से होता है । जिसको अपने चित्त वश करने की भी शक्ति नहीं उसको धिक्कार है वह मनुष्यों में गर्दभ है । अपने पुरुषार्थ से मन का वश करना अपने साथ परम मित्रता करनी है और अपने मन के वश किये बिना अपना आप ही शत्रु है अर्थात् मन के उपशम किये बिना घटीयन्त्र की नाईं संसारचक्र में भटकता है जिन मनुष्यों ने मन को उपशम किया है उनको परम लाभ हुआ है । हे रामजी! मन के मारने का मन्त्र यही है कि दृश्य की ओर से चित्त को निवृत्त करे और आत्मचेतन संवित् में लगावे, आत्म चिन्तना करके चित्त को मारना सुखरूप है । हे रामजी! इच्छा से मन पुष्ट रहता है । जब भीतर से इच्छा निवृत्त होती है तब मन उपशम होता है और जब मन उपशम होता है तब गुरु और शास्त्रों के उपदेश और मन्त्र आदिकों की अपेक्षा नहीं रहती । हे रामजी! जब पुरुष असंकल्परूपी औषध करके चित्तरूपी रोग काटे तब उस पद को प्राप्त हो जो सर्व और सर्वगत शान्त रूप है । इस देह को निश्चय करके मूढ़ मन ने कल्पा है । इससे पुरुषार्थ करके चित्त को अचित्त करो तब इस बन्धन से छूटोगे । हे रामजी! शुद्ध चित्त आकाश में यत्न करके चित्त को लगाओ । जब चिरकाल पर्यन्त मन का तीव्र संवेग आत्मा की ओर होगा तब चैतन्य चित्त का भक्षण कर लेगा और जब चित्त का चिन्तत्व निवृत्त हो जावेगा तब केवल चैतनमात्र ही शेष रहेगा । जब जगत् की भावना से तुम मुक्त होगे तब तुम्हारी बुद्धि परमार्थतत्त्व में लगेगी अर्थात् बोधरूप हो जावेगी । इससे इस चित् को चित्त से ग्रास कर लो, जब तुम परम पुरुषार्थ करके चित्त को अचित करोगे तब महा अद्वैतपद को प्राप्त होगे । हे रामजी! मन के जीतने में तुमको और कुछ यत्न नहीं, केवल एक संवेदन का प्रवाह उलटना है कि दृश्य की ओर से निवृत्त करके आत्मा की ओर लगाओ, इसी से चित्त अचित्त हो जावेगा । चित्त के क्षोभ से रहित होना परम क्ल्याण है, इससे क्षोभ से रहित हो जाओ । जिसने मन को जीता है उसको त्रिलोकी का जीतना तृण समान है । हे रामजी! ऐसे शूरमा हैं जो कि शस्त्रों के प्रहार सहते हैं, अग्नि में जलना भी सहते हैं और शत्रु को मारते हैं तब स्वाभाविक फुरने के सहने में क्या कृपणता है? हे रामजी! जिनको चित्त के उलटाने की सामर्थ्य नहीं वे नरों में अधम हैं । जिनको यह अनुभव होता है कि मैं जन्मा हूँ, मैं मरूँगा और मैं जीव हूँ, उनको वह असत्यरूप प्रमाद चपलता से भासता है । जैसे कोई किसी स्थान में बैठा हो और मन के फुरने से और देश में कार्य करने लगे तो वह भ्रमरूप है तैसे ही आपको जन्म मरण भ्रम से मानता है । हे रामजी! मनुष्य मनरूपी शरीर से इस लोक और परलोक में मोक्ष होने पर्यन्त चित्त में भटकता है । यदि चित्त स्थिर है तो तुमको मृत्यु का भय कैसे होता है? तुम्हारा स्वरूप नित्य शुद्धबुद्द और सर्व विकार से रहित है । यह लोक आदिक भ्रम मन के फुरने से उपजा है, मन से जगत् का कुछ रूप नहीं । पुत्र, भाई, नौकर आदिक जो स्नेह के स्थान हैं और उनके क्लेश से आपको क्लेशित मानते हैं वह भी चित्त से मानते हैं । जब चित्त अचित्त हो जावे तब सर्व बन्धनों से मुक्त हो । हे रामजी! मैंने अधःऊर्ध्व सर्वस्थान देखे हैं, सब शास्त्र भी देखे हैं और उनको एकान्त में बैठकर बारम्बार विचारा भी है, शान्त होने का और कोई उपाय नहीं, चित्त का उपशम करना ही उपाय है । जब तक चित्त दृश्य को देखता है तब तक शान्ति प्राप्त नहीं होती और जब चित्त उपशम होता है तब उस पद में विश्राम होता है जो नित्य, शुद्ध, सर्वात्मा और सबके हृदय में चैतन आकाश परम शान्तरूप है । हे रामजी! हृदयाकाश में जो चैतन चक्र है अर्थात् जो ब्रह्माकार वृत्ति है उसकी ओर जब मन का तीव्र संवेग हो तब सब ही दुःखों का अभाव हो जावे । मन का मनन भाव उसी ब्रह्माकार वृत्तिरूपी चक्र से नष्ट होता है । हे रामजी! संसार के भोग जो मन से रमणीय भासते हैं वे जब रमणीय न भासें तब जानिये कि मनके अंग कटे । जो कुछ अहं और त्वं आदि शब्दार्थ भासते हैं वे सब मनोमात्र हैं । जब दृढ़ विचार करके इनकी अभावना हो तब मन की वासना नष्ट हो । जैसे हँसिये से खेती कट जाती है तैसे ही वासना नष्ट होने से परमतत्त्व शुद्ध भासता है जैसे घटा के अभाव हुये शरद्काल का आकाश निर्मल भासता है तैसे ही वासना से रहित मन शुद्ध भासेगा । हे रामजी! मन ही जीव का परम शत्रु है और इच्छा संकल्प करके पुष्ट हो जाता है । जब इच्छा कोई जब इच्छा कोई न उपजे तब आप ही निवृत्त हो जावेगा । जैसे अग्नि में काष्ट डालिये तो बढ़ जाती है और यदि न डालिये तो आप ही नष्ट हो जाती है । हे रामजी! इस मन में जो संकल्प कल्पना उठती है उसका त्याग करो तब तुम्हारा मन स्वतः नष्ट होगा । जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ शूरमा निर्भय होके जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं, प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संकल्प त्यागने में क्या भय होता है? हे रामजी! चित्त के फैलाने से अनर्थ होता है और चित्त के अस्फुरण होनेसे कल्याण होता है-यह वार्त्ता बालक भी जानता है । जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके कहता है तैसे ही मैं भी तुमको समझता हूँ कि मनरूपी शत्रु ने भय दिया है और संकल्प कल्पना से जितनी आपदायें हैं वे मन से उपजती हैं । जैसे सूर्य की किरणों से मृग तृष्णा का जल दीखता है तैसे ही सब आपदा मन से दीखती हैं । जिसका मन स्थिर हुआ है उसको कोई क्षोभ नहीं होता । हे रामजी! प्रलयकाल का पवन चले, सप्त समुद्र मर्यादा त्यागकर इकट्ठे हो जावें और द्वादश सूर्य इकट्ठे होके तपें तो भी मन से रहित पुरुष को कोई विघ्न नहीं होता-वह सदा शान्तरूप है । हे रामजी! मन रूपी बीज है, उससे संसारवृक्ष उपजा है, सात लोक उसके पत्र हैं और शुभ-अशुभ सुख-दुःख उसके फल हैं । वह मन संकल्प से रहित नष्ट हो जाता है संकल्प के बढ़ने से अनर्थ का कारण होता है । इससे संकल्प से रहित उस चक्रवर्ती राजापद में आरूढ़ हुआ परमपद को प्राप्त होगा जिस पद में स्थित होने से चक्रवर्ती राज तृणवत् भासता है । हे रामजी! मन के क्षीण होने से जीव उत्तम परमानन्द पद को प्राप्त होता है । हे रामजी! सन्तोष से जब मन वश होता है तब नित्य, उदयरूप, निरीह, परमपावन, निर्मल, सम, अनन्त और सर्वविकार विकल्प से रहित जो आत्मपद शेष रहता है वह तुमको प्राप्त होगा ।

Friday, January 21, 2011

हे रामजी! यह मन परम दुःख का कारण है

वसिष्ठजी बोले, हे रामजी! मूढ़ अज्ञानी पुरुष अपने संकल्प से आप ही मोह को प्राप्त होता है और जो पण्डित है वह मोह को नहीं प्राप्त होता । जैसे मूर्ख बालक अपनी पर छाहीं में पिशाच कल्पकर भय पाता है तैसे ही मूर्ख अपनी कल्पना से दुःखी होता है । रामजी बोलेहे भगवन् ! ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ! वह संकल्प क्या है और छाया क्या है जो असत्य ही सत्यरूप पिशाच की नाईं दीखती है? वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! पाञ्च भौतिक शरीर परछाहीं की नाईं है, क्योंकि अपनी कल्पना से रचा है और अहंकाररूपी पिशाच है । जैसे मिथ्या परछाहीं में पिशाच को देख के मनुष्य भयवान् होता है तैसे ही देह में अहंकार को देखके खेद प्राप्त होता है । हे रामजी! एक परम आत्मा सर्व में स्थित है तब अहंकार कैसे हो वास्तव में अहंकार कोई नहीं परमात्मा ही अभेद रूप है और उसमें अहंबुद्धि भ्रम से भासती है । जैसे मिथ्यादर्शी को मरुस्थल में जल भासता है तैसे ही मिथ्याज्ञान से अहंकार कल्पना होती है । जैसे मणि का प्रकाश मणि पर पड़ता है सो मणि से भिन्न नहीं, मणिरूप ही है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है सो आत्मा ही में स्थित है । जैसे जल में द्रवता से चक्र और तरंग हो । भासते हैं सो जलरूप ही हैं, तैसे ही आत्मा में चित्त से जो नानात्व हो भासता है सो आत्मा से भिन्न नहीं, असम्यक् दर्शन से नानात्व भासता है । इससे असम्यक् दृष्टि को त्याग के आनन्दरूप का आश्रय करो और मोह के आरम्भ को त्याग कर शुद्ध बुद्धि सहित विचारो और विचार से सत्य ग्रहण करो, असत्य का त्याग करो । हे रामजी! तुम मोह का माहात्म्य देखो कि स्थूलरूप देह को नाशवन्त है उसके रखने का उपाय करता है परे वह रहता नहीं और जिस मनरूपी शरीर के नाश हुए कल्याण होता है उसको पुष्ट करता है । हे रामजी! सब मोह के आरम्भ मिथ्या भ्रम से दृढ़ हुए हैं, अनन्त आत्मतत्त्व में कोई कल्पना नहीं, कौन किसको कहे । जो कुछ नानात्व भासता है वह है नहीं और जीव ब्रह्म से अभिन्न है । उस ब्रह्मतत्त्व में किसे बन्ध कहिये और किसे मोक्ष कहिये, वास्तव में न कोई बन्ध है न मोक्ष है, क्यों कि आत्मसत्ता अनन्तरूप है । हे रामजी! वास्तव में द्वैतकल्पना कोई नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आप में है । जो आत्मतत्त्व अनन्त है वही अज्ञान से अन्य की नाईं भासता है । जब जीव अनात्म में आत्माभिमान करता है तब परिच्छिन्न कल्पना होती है और शरीर को अच्छेदरूप जान के कष्टवान् होता है पर आत्मपद में भेद अभेद विकार कोई नहीं क्योंकि वह तो नित्य, शुद्ध, बोध और अविनाशी पुरुष है । हे रामजी! आत्मा में न कोई विकार है, न बन्धन है और न मोक्ष है, क्योंकि आत्मतत्त्व अनन्तरूप, निर्विकार, अच्छेद, निराकार और अद्वैतरूप है । उसको बन्ध विकार कल्पना कैसे हो? हे रामजी! देह के नष्ट हुए आत्मा नष्ट नहीं होता । जैसे चमड़ी में आकाश होता है तो वह चमड़ी के नाश हुए नष्ट नहीं होता तैसे ही देह के नाश हुए गन्ध आकाश में लीन होती है, जैसे कमल पर बरफ पड़ता है तो कमल नष्ट हो जाता है भ्रमर नष्ट नहीं होता और जैसे मेघ के नाश हुए पवन का नाश नहीं होता, तैसे ही देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता । हे रामजी! सबका शरीर मन है और वह आत्मा की शक्ति है, उसमें यह जगत् आदिक जगत् रचा है । उस मन का ज्ञान बिना नाश नहीं होता तो फिर शरीर आदि के नष्ट हुए आत्मा का नाश कैसे हो? हे रामजी! शरीर के नष्ट हुए तुम्हारा नाश नहीं होगा, तुम क्यों मिथ्या शोकवान् होते हो? तुम तो नित्य, शुद्ध और शान्तरूप आत्मा हो । हे रामजी! जैसे मेघ के क्षीण हुए पवन क्षीण नहीं होता और कमलों के सूखे से भ्रमर नष्ट नहीं होता तैसे ही देह के नष्ट हुए आत्मा नहीं नष्ट होता । संसार में क्रीड़ा कर्ता जो मन है उसका संसार में नाश नहीं होता तो आत्मा का नाश कैसे हो? जैसे घट के नाश हुए घटाकाश नाश नहीं होता । हे रामजी! जैसे जल के कुण्ड में सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है और उस कुण्ड के नाश हुए प्रतिबिम्ब का नाश नहीं होता, यदि उस जल को और ठौर ले जायं तो प्रतिबिम्ब भी चलता भासता है तैसे ही देह में जो आत्मा स्थित है सो देह के चलने से चलता भासता है । जैसे घट के फूटे से घटाकाश महाकाश में स्थित होता है तैसे ही देह के नाश हुए आत्मा निरामयपद में स्थित होता है । हे रामजी! सब जीवों का देह मनरूपी है । जब वह मृतक होता है तब कुछ काल पर्यन्त देश-काल और पदार्थ का अभाव हो जाता है और इसके अनन्तर फिर पदार्थ भासते हैं उस मूर्च्छा का नाम मृतक है । आत्मा का नाश तो नहीं होता चित्त की मूर्च्छा से देश, काल और पदार्थों के अभाव होने का नाम मृतक है । हे रामजी! संसारभ्रम का रचनेवाला जो मन है उसका ज्ञानरूपी अग्नि से नाश होता है, आत्मसत्ता का नाश कैसे हो? हे रामजी! देश काल और वस्तु से मन का निश्चय विपर्यय भाव को प्राप्त होता है; चाहे अनेक यत्न करे परन्तु ज्ञान बिना नष्ट नहीं होता । हे रामजी! कल्पितरूप जन्म का नाश नहीं होता तो जगत् के पदार्थों से आत्मसत्ता का नाश कैसे हो? इसलिये शोक किसी का न करना । हे महाबाहो! तुम तो नित्यशुद्ध अविनाशी पुरुष हो । यह जो संकल्प वासना से तुममें जन्म-मरण आदिक भासते हैं सो भ्रममात्र हैं । इससे इस वासना को त्याग के तुम शुद्ध चिदाकाश में स्थित हो जाओ । जैसे गरुड़ पक्षी अण्डा त्याग के आकाश को उड़ता है तैसे ही वासना को त्याग करके तुम चिदाकाश में स्थित हो जाओ । हे रामजी! शुद्ध आत्मा में मनन फुरता है वही मन है, वह मनन शक्ति इष्ट और अनिष्ट से बन्धन का कारण है और वह मन मिथ्या भ्रान्ति से उदय हुआ है । जैसे स्वप्न दृष्टा भ्रान्ति मात्र होता है तैसे ही जाग्रत् सृष्टि भ्रान्तिमात्र है । हे रामजी! यह जगत् अविद्या से बन्धनमय और दुःख का कारण है और उस अविद्या को तारना कठिन है । अविचार से अविद्या सिद्ध है, विचार किये से नष्ट होती है । उसी अविद्या ने जगत् विस्तारा है यह जगत बरफ की दीवार है । जब ज्ञानरूपी अग्नि का तेज होगा तब निवृत्त हो जावेगी । हे रामजी! यह जगत् आशारूप है, अविद्या भ्रान्ति दृष्टि से आकार हो भासता है और असत्य अविद्या से बड़े विस्तार को प्राप्त होता है । यह दीर्घ स्वप्ना है, विचार किये से निवृत्त हो जाता है । हे रामजी! यह जगत् भावनामात्र है, वास्तव में कुछ उपजा नहीं । जैसे आकाश में भ्रांति से मारे मोर के पुच्छ की नाईं तरुवरे भासते हैं तैसे ही भान्ति से जगत् भासता है । जैसे बरफ की शिला तप्त करने से लीन हो जाती है तैसे ही आत्मविचार से जगत् लीन हो जाता है । हे रामजी! यह जगत् अविद्या से बँधा है सो अनर्थ का कारण है । जैसे-जैसे चित्त फुरता है तैसे ही तैसे हो भासता है । जैसे इन्द्रजाली सुवर्ण की वर्षा आदिक माया रचता है तैसे ही चित्त जैसा फुरता है तैसा ही हो भासता है । आत्मा के प्रमाद से जो कुछ चेष्टा मन करता है वह अपने ही नाश के कारण होती है । जैसे घुरान अर्थात् कुसवारी की चेष्टा अपने ही बन्धन का कारण होती है तैसे ही मन की चेष्टा अपने नाश के निमित्त होती है और जैसे नटवा अपनी क्रिया से नाना प्रकार के रूप धारता है तैसे ही मन अपने संकल्प को विकल्प करके नाना प्रकार के भावरूपों को धारता है । जब चित्त अपने संकल्प विकल्प को त्याग कर आत्मा की ओर देखता है तब चित्त नष्ट हो जाता है और जब तक आत्मा की ओर नहीं देखता तब तक जगत् को फैलाता है सो दुःख का कारण होता है । हे रामजी! संकल्प आवरण को दूर करो तब आत्मतत्त्व प्रकाशेगा संकल्प विकल्प ही आत्मा में आवरण है । जब दृश्य को त्यागोगे तब आत्मबोध प्रकाशेगा । हे रामजी! मन के नाश में बड़ा आनन्द उदय होता है और मन के उदय हुए बड़ा अनर्थ होता है, इससे मन के नाश करने का यत्न मत करो । हे रामजी! मन रूपी किसान ने जगत्‌रूपी वन रचा है, उसमें सुखदुःखरूपी वृक्ष हैं और मनरूपी सर्प रहता है । जो विवेक से रहित पुरुष हैं उनको वह भोजन करता है । हे रामजी! यह मन परम दुःख का कारण है; इससे तुम मनरूपी शत्रु को वैराग्य और अभ्यास रूपी खड्ग से मारो तब आत्मपद को प्राप्त होगे ।