श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Saturday, July 31, 2010

'योगवासिष्ठ महारामायण' से आत्मज्ञान

कलियुग के बेचारे मानव में शारीरिक क्षमताएँ नहीं हैं, मानसिक सच्चाइयाँ नहीं हैं, बौद्धिक ऊँचाइयाँ नहीं हैं फिर भी 'योगवासिष्ठ महारामायण' जैसा ऊँचा ग्रंथ उसे पढ़ने-सुनने को मिल रहा है, यह उसका कितना सौभाग्य है। आज त्रेतायुग (जिस युग में वसिष्ठजी द्वारा भगवान श्रीरामजी को यह उपदेश दिया गया था) जैसा शरीर नहीं है, त्रेतायुग जैसी सामाजिक व्यवस्था नहीं है तथा वैसी मानसिक पवित्रता और सच्चाई भी नहीं है। लेकिन त्रेतायुग और सतयुग में सत्संग के विचार द्वारा श्रीरामजी जैसों को, श्रीरामजी के गुरुओं को, तत्कालीन लोगों को जो सत्यस्वरूप परमात्मा का ज्ञान, परमात्म-शान्ति और परमात्म-पद की प्राप्ति होती थी, वही परमात्म-ज्ञान, परमात्म-शांति और परमात्म-पद इस युग में भी हम पा सकते हैं। अपितु उन युगों की अपेक्षा इस युग में और सरलता से पा सकते हैं। कलियुग में मनुष्य शरीर से, मन से तथा बुद्धि से भी गरीब हो गया है। वह ज्यादा समय मन को एकाग्र और मौन नहीं रख सकता। परमात्मा ने कलियुग में ऐसी व्यवस्था की है कि मनुष्य थोड़ा सा साधन करे तो भी उसे बहुत सारी उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाय। परमात्मा से मुलाकात करने हेतु मेरे गुरुदेव के गुरुदेव ने जितना परिश्रम किया, जितनी तपस्या की, उससे कम परिश्रम में मेरे गुरुदेव को परमात्मा की मुलाकात हुई। लेकिन मेरे गुरुदेव को जो तप-तितिक्षा सहनी पड़ी, उसका हजारवाँ हिस्सा भी मुझे गुरु-प्रसाद पाने हेतु सहन नहीं करना पड़ा। फिर भी मुझे जो सहन करना पड़ा, उतना मेरे साधकों को नहीं करना पड़ रहा है और सहज में ही उन्हें साधना का मार्ग मिल रहा है।

भगवान श्रीरामजी का विवेक मात्र 16 वर्ष की उम्र में जग गया और वे विवेक-विचार में खोये रहने लगे। उन्हीं दिनों यज्ञों का ध्वंस करने वाले मारीच आदिर राक्षस महर्षि विश्वामित्रजी के भी यज्ञ में विघ्न डालकर उन्हें तंग कर रहे थे। विश्वामित्र जी ने सोचा कि 'राजा दशरथ धर्मात्मा हैं। मैं उनसे मदद लूँ।' वे अयोध्या गये। राजा दशरथ को जैसे ही खबर मिली कि विश्वामित्र जी आये हैं, वे सिंहासन से तुरंत उठ खड़े हुए और स्वयं उनके पास जाकर उनके चरणों में दंडवत् प्रणाम किया। राजा दशरथ इतना आदर करते थे आत्मज्ञानी महापुरुषों का !

दशरथ जी ने विश्वामित्र जी को तिलक किया, उनकी आरती उतारी, फिर पूछाः "मुनिशार्दूल ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"

विश्वामित्रजी बोलेः "जो माँगूगा वह दोगे ?"

"महाराज ! मैं और मेरा राज्य आपके चरणों में अर्पित है।"

"यह नहीं चाहिए। आपके सुपुत्र श्रीराम और लक्ष्मण मुझे दे दो।"

यह सुनकर राजा दशरथ मूर्च्छित हो गये, फिर होश में आने पर बोलेः "महाराज ! यह मत माँगो, कुछ और माँग लो।"

विश्वामित्रजी क्रोधित होकर बोलेः "अच्छा, खाली घर से साधु खाली ही जाता है। अभागा आदमी क्या जाने साधु की सेवा ? कौन अभागा मनुष्य साधु के दैवी कार्य में सहभागी हो सकता है ? हम यह चले।"

दशरथ जी घबराये कि संत रूठकर, नाराज होकर चले जायें यह ठीक नहीं है। वसिष्ठजी ने भी दशरथ को समझाया कि "विश्वामित्र जी के पास वज्र जैसा तपोबल है। ये स्वयं समर्थ हैं राक्षसों को शाप देने में, लेकिन संत लोहे से लोहा काटना चाहते हैं, सोने से नहीं। विश्वामित्र जी आपके राजकुमारों द्वारा ताड़का आदि का वध करायेंगे और उन्हें प्रसिद्ध करेंगे। इसलिए राम-लक्ष्मण को विश्वामित्रजी को अर्पण करने में ही आपकी शोभा है।"

राजा दशरथ ने कहाः "श्रीराम तो विवेक करके संसार से उपराम हो गये हैं।"

वासिष्ठ जी ने कहाः "साधो-साधो ! जब श्रीराम जी का विवेक जगा है तो हम उन्हें ज्ञानी बना कर भेज देंगे, कर्मबंधन से पार करके भेज देंगे। वे ब्रह्मज्ञानी होकर राज्य करें।"

भगवान श्रीराम जी को आदर के साथ राजसभा में लाया गया और वहाँ उन्होंने अपने हृदय के विचार प्रकट किये। इन्हीं विचारों का वर्णन 'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' के पहले प्रकरण 'वैराग्य प्रकरण' में किया गया है। फिर वासिष्ठ जी और विश्वामित्रजी ने श्रीराम जी के वैराग्य की सराहना की और जैसे बीज बोकर सिंचाई की जाती है, वैसे ही उनको उपदेश कर उनमें संस्कार सींचे। इन उपदेशों का वर्णन दूसरे प्रकरण 'मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण' में किया गया है। फिर 'सृष्टि का मूल क्या है और जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ?' – इसका उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन तीसरे प्रकरण 'उत्पत्ति प्रकरण' में किया गया है। फिर अनात्मा से उपराम होकर आत्मा में स्थिति करने का उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन चौथे प्रकरण 'स्थिति प्रकरण' में किया गया है। फिर उपदेश का सिलसिला बढ़ता गया सुख-दुःख में समता का अभ्यास करने और परमात्मा में विश्रांति पाने का उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन पाँचवें प्रकरण 'उपशम प्रकरण' में किया गया है। जैसे तेल खत्म होने पर दीया बुझ जाता है, निर्वाण हो जाता है, वैसे ही मन को हमारी सत्ता न मिलने से उसकी दौड़, भटकान खत्म हो जाती है अर्थात् मन का निर्वाण हो जाता है। इसी का उपदेश आखिरी छठे प्रकरण 'निर्वाण प्रकरण' में दिया गया है।

जो दुःखमय संसार की चोटों से बचकर परम सुख, परम शीतलता का अनुभव करना और अपना कर्त्तव्य निर्लेप भाव से निभाना चाहते है, उन सभी के लिए 'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' बहुत अच्छा है।

स्वामी रामतीर्थ ने इसका बार-बार अध्ययन किया और वे इसके ज्ञान में, आत्मानुभव में इतने मस्त हुए कि अपने देश में तो आत्मशांति का प्रसाद बाँटा ही लेकिन अमेरिका भी गये और वहाँ के प्रेसीडेंट रुजवेल्ट ने उनसे बड़ी शांति पायी। यह सदग्रंथ पढ़कर मनन करने से व्यक्ति स्वयं ही शांति पाता है, परमात्मा में सराबोर हो जाता है तथा दूसरों को भी शांति देने की क्षमता उसमें आ जाती है। स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः "राम (स्वामी रामतीर्थ) के विचार से अत्यंत आश्चर्यजनक और सर्वोपरि श्रेष्ठ ग्रंथ, जो इस संसार में सूर्य के तले कभी लिखे गये, उनमें से 'श्री योगवासिष्ठ' एक ऐसा ग्रंथ है जिसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति इस मनुष्यलोक में आत्मज्ञान पाये बिना नहीं रह सकता।"

'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' बार-बार विचारने योग्य है।

वेदांत ग्रंथ दो प्रकार के होते हैं- एक होते हैं प्रक्रिया ग्रंथ और दूसरे होते हैं सिद्धान्त ग्रंथ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच स्थूल भूतों तथा सूक्ष्म भूतों की जानकारी, स्थूल भूतों से स्थूल शरीर कैसे बना ? सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म शरीर कैसे बना ? चैतन्य स्वरूप आत्मा इससे पृथक कैसे है ? – इस प्रकार जो ग्रंथ विभिन्न चरणों में, प्रक्रियात्मक ढंग से परब्रह्म-परमात्मा की समझ देते हैं, उन ग्रन्थों को कहा जाता है 'प्रक्रिया ग्रंथ'। जैसे – पंचीकरण, विचारसागर, विचार-चंद्रोदय, पंचदशी आदि।

'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' सिद्धान्त ग्रंथ है। इसमें कहानियाँ, संवाद, इतिहास – सब कहे गये हैं और घुमा फिराकर वही सिद्धान्त की सारभूत बात कही गयी है। पुराणों में राजा हरिश्चंद्र आदि पूर्वकालीन श्रेष्ठजनों के प्रेरक चरित्रों और उनकी रसमय धर्मचर्चाओं के द्वारा सत्य को समझाया गया है। इस प्रकार पुराणों में कथा-प्रसंग अधिक आते हैं और सार बात (आत्मा-परमात्मा की बात) का कहीं-कहीं संकेत है, परंतु 'श्री योगवासिष्ठ' कदम-कदम पर सार बात है।

वसिष्ठ जी कहते हैं- "जिसका अंतःकरण मुक्ति के लिए खूब लालायित हो, सत्कर्म करके खूब शुद्ध हो गया हो तथा ध्यान करके खूब एकाग्र हो गया हो उसे यह उपदेश सुनने मात्र से आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। जिन लोगों को इस ग्रंथ में, इस ज्ञान में प्रीति नहीं है, वे अपरिपक्व हैं। उनको चाहिए कि व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान, यज्ञ, होम, हवन आदि करें। इन्हें करके जब उनका अंतःकरण परिपक्व होगा, तब उनको इसमें रुचि होगी।
परम पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू
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