श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Saturday, March 5, 2011

मन को मारने का मंत्र

हे रामजी! यह चित्तरूपी महाव्याधि है, उसकी निवृत्ति के अर्थ मैं तुमको एक श्रेष्ठ औषध कहता हूँ वह तुम सुनो कि जिसमें यत्न भी अपना हो, साध्य भी आप ही हो और औषध भी आप हो और सब पुरुषार्थ आप ही से सिद्ध होता है । इस यत्न से चित्तरूपी वैताल को नष्ट करो । हे रामजी! जो कुछ पदार्थ तुमको रस संयुक्त दृष्टि आवें उनको त्याग करो । जब वाञ्छित पदार्थों का त्याग करोगे तब मन को जीत लोगे और अचलपद को प्राप्त होगे । जैसे लोहे से लोहा कटता है तैसे ही मन से मन को काटो और यत्न करके शुभगुणों से चित्तरूपी वेताल को दूर करो । देहादिक अवस्तु में जो बस्तु की भावना है और वस्तु आत्मतत्त्व में जो देहादिक की भावना है उनको त्यागकर आत्म तत्त्व में भावना लगाओ । हे रामजी! जैसे चित्त में पदार्थों की चिन्तना होती है तैसे ही आत्मपद पाने की चिन्तना से सत्यकर्म की शुद्धता लेकर चित्त को यत्न करके चैतन्य संवित् की ओर लगाओ और सब वासना को त्याग के एकाग्रता करो तब परमपद की प्राप्ति होगी । हे रामजी! जिन पुरुषों को अपनी इच्छा त्यागनी कठिन है वे विषयों के कीट हैं, क्योंकि अशुभ पदार्थ मूढ़ता से रमणीय भासते हैं उस अशुभ को अशुभ और शुभ को शुभ जानना यही पुरुषार्थ है । हे रामजी! शुभ अशुभ दोनों पहलवान हैं, उन दोनों में जो बली होता है उसकी जय होती है । इससे शीघ्र ही पुरुष प्रयत्न करके अपने चित्त को जीतो । जब तुम अचित्तहोगे तब यत्न बिना आत्मपद को प्राप्त होगे । जैसे बादलों के अभाव हुए यत्न बिना सूर्य भासता है तैसे ही आत्मपद के आगे चित्त का फुरना जो बादल वत् आवरण है उसका जब अभाव होगा तब अयत्नसिद्ध आत्मपद भासेगा सो चित्त के स्थित करने का मन्त्र भी आप से होता है । जिसको अपने चित्त वश करने की भी शक्ति नहीं उसको धिक्कार है वह मनुष्यों में गर्दभ है । अपने पुरुषार्थ से मन का वश करना अपने साथ परम मित्रता करनी है और अपने मन के वश किये बिना अपना आप ही शत्रु है अर्थात् मन के उपशम किये बिना घटीयन्त्र की नाईं संसारचक्र में भटकता है जिन मनुष्यों ने मन को उपशम किया है उनको परम लाभ हुआ है । हे रामजी! मन के मारने का मन्त्र यही है कि दृश्य की ओर से चित्त को निवृत्त करे और आत्मचेतन संवित् में लगावे, आत्म चिन्तना करके चित्त को मारना सुखरूप है । हे रामजी! इच्छा से मन पुष्ट रहता है । जब भीतर से इच्छा निवृत्त होती है तब मन उपशम होता है और जब मन उपशम होता है तब गुरु और शास्त्रों के उपदेश और मन्त्र आदिकों की अपेक्षा नहीं रहती । हे रामजी! जब पुरुष असंकल्परूपी औषध करके चित्तरूपी रोग काटे तब उस पद को प्राप्त हो जो सर्व और सर्वगत शान्त रूप है । इस देह को निश्चय करके मूढ़ मन ने कल्पा है । इससे पुरुषार्थ करके चित्त को अचित्त करो तब इस बन्धन से छूटोगे । हे रामजी! शुद्ध चित्त आकाश में यत्न करके चित्त को लगाओ । जब चिरकाल पर्यन्त मन का तीव्र संवेग आत्मा की ओर होगा तब चैतन्य चित्त का भक्षण कर लेगा और जब चित्त का चिन्तत्व निवृत्त हो जावेगा तब केवल चैतनमात्र ही शेष रहेगा । जब जगत् की भावना से तुम मुक्त होगे तब तुम्हारी बुद्धि परमार्थतत्त्व में लगेगी अर्थात् बोधरूप हो जावेगी । इससे इस चित् को चित्त से ग्रास कर लो, जब तुम परम पुरुषार्थ करके चित्त को अचित करोगे तब महा अद्वैतपद को प्राप्त होगे । हे रामजी! मन के जीतने में तुमको और कुछ यत्न नहीं, केवल एक संवेदन का प्रवाह उलटना है कि दृश्य की ओर से निवृत्त करके आत्मा की ओर लगाओ, इसी से चित्त अचित्त हो जावेगा । चित्त के क्षोभ से रहित होना परम क्ल्याण है, इससे क्षोभ से रहित हो जाओ । जिसने मन को जीता है उसको त्रिलोकी का जीतना तृण समान है । हे रामजी! ऐसे शूरमा हैं जो कि शस्त्रों के प्रहार सहते हैं, अग्नि में जलना भी सहते हैं और शत्रु को मारते हैं तब स्वाभाविक फुरने के सहने में क्या कृपणता है? हे रामजी! जिनको चित्त के उलटाने की सामर्थ्य नहीं वे नरों में अधम हैं । जिनको यह अनुभव होता है कि मैं जन्मा हूँ, मैं मरूँगा और मैं जीव हूँ, उनको वह असत्यरूप प्रमाद चपलता से भासता है । जैसे कोई किसी स्थान में बैठा हो और मन के फुरने से और देश में कार्य करने लगे तो वह भ्रमरूप है तैसे ही आपको जन्म मरण भ्रम से मानता है । हे रामजी! मनुष्य मनरूपी शरीर से इस लोक और परलोक में मोक्ष होने पर्यन्त चित्त में भटकता है । यदि चित्त स्थिर है तो तुमको मृत्यु का भय कैसे होता है? तुम्हारा स्वरूप नित्य शुद्धबुद्द और सर्व विकार से रहित है । यह लोक आदिक भ्रम मन के फुरने से उपजा है, मन से जगत् का कुछ रूप नहीं । पुत्र, भाई, नौकर आदिक जो स्नेह के स्थान हैं और उनके क्लेश से आपको क्लेशित मानते हैं वह भी चित्त से मानते हैं । जब चित्त अचित्त हो जावे तब सर्व बन्धनों से मुक्त हो । हे रामजी! मैंने अधःऊर्ध्व सर्वस्थान देखे हैं, सब शास्त्र भी देखे हैं और उनको एकान्त में बैठकर बारम्बार विचारा भी है, शान्त होने का और कोई उपाय नहीं, चित्त का उपशम करना ही उपाय है । जब तक चित्त दृश्य को देखता है तब तक शान्ति प्राप्त नहीं होती और जब चित्त उपशम होता है तब उस पद में विश्राम होता है जो नित्य, शुद्ध, सर्वात्मा और सबके हृदय में चैतन आकाश परम शान्तरूप है । हे रामजी! हृदयाकाश में जो चैतन चक्र है अर्थात् जो ब्रह्माकार वृत्ति है उसकी ओर जब मन का तीव्र संवेग हो तब सब ही दुःखों का अभाव हो जावे । मन का मनन भाव उसी ब्रह्माकार वृत्तिरूपी चक्र से नष्ट होता है । हे रामजी! संसार के भोग जो मन से रमणीय भासते हैं वे जब रमणीय न भासें तब जानिये कि मनके अंग कटे । जो कुछ अहं और त्वं आदि शब्दार्थ भासते हैं वे सब मनोमात्र हैं । जब दृढ़ विचार करके इनकी अभावना हो तब मन की वासना नष्ट हो । जैसे हँसिये से खेती कट जाती है तैसे ही वासना नष्ट होने से परमतत्त्व शुद्ध भासता है जैसे घटा के अभाव हुये शरद्काल का आकाश निर्मल भासता है तैसे ही वासना से रहित मन शुद्ध भासेगा । हे रामजी! मन ही जीव का परम शत्रु है और इच्छा संकल्प करके पुष्ट हो जाता है । जब इच्छा कोई जब इच्छा कोई न उपजे तब आप ही निवृत्त हो जावेगा । जैसे अग्नि में काष्ट डालिये तो बढ़ जाती है और यदि न डालिये तो आप ही नष्ट हो जाती है । हे रामजी! इस मन में जो संकल्प कल्पना उठती है उसका त्याग करो तब तुम्हारा मन स्वतः नष्ट होगा । जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ शूरमा निर्भय होके जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं, प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संकल्प त्यागने में क्या भय होता है? हे रामजी! चित्त के फैलाने से अनर्थ होता है और चित्त के अस्फुरण होनेसे कल्याण होता है-यह वार्त्ता बालक भी जानता है । जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके कहता है तैसे ही मैं भी तुमको समझता हूँ कि मनरूपी शत्रु ने भय दिया है और संकल्प कल्पना से जितनी आपदायें हैं वे मन से उपजती हैं । जैसे सूर्य की किरणों से मृग तृष्णा का जल दीखता है तैसे ही सब आपदा मन से दीखती हैं । जिसका मन स्थिर हुआ है उसको कोई क्षोभ नहीं होता । हे रामजी! प्रलयकाल का पवन चले, सप्त समुद्र मर्यादा त्यागकर इकट्ठे हो जावें और द्वादश सूर्य इकट्ठे होके तपें तो भी मन से रहित पुरुष को कोई विघ्न नहीं होता-वह सदा शान्तरूप है । हे रामजी! मन रूपी बीज है, उससे संसारवृक्ष उपजा है, सात लोक उसके पत्र हैं और शुभ-अशुभ सुख-दुःख उसके फल हैं । वह मन संकल्प से रहित नष्ट हो जाता है संकल्प के बढ़ने से अनर्थ का कारण होता है । इससे संकल्प से रहित उस चक्रवर्ती राजापद में आरूढ़ हुआ परमपद को प्राप्त होगा जिस पद में स्थित होने से चक्रवर्ती राज तृणवत् भासता है । हे रामजी! मन के क्षीण होने से जीव उत्तम परमानन्द पद को प्राप्त होता है । हे रामजी! सन्तोष से जब मन वश होता है तब नित्य, उदयरूप, निरीह, परमपावन, निर्मल, सम, अनन्त और सर्वविकार विकल्प से रहित जो आत्मपद शेष रहता है वह तुमको प्राप्त होगा ।